यह पाठ सृष्टि के निर्माण और जीवन के अंतिम सत्य, यानी आत्मा का परमात्मा में विलीन हो जाना, को सरल और काव्यात्मक भाषा में समझाता है। यह भारतीय दर्शन, विशेषकर वेदांत के विचारों से गहराई से जुड़ा हुआ है।

इस कहानी में द्वैत ब्रह्म की परेशानी ही जीव की परेशानी है। जब तक वह अपनी अनेकरूपता में उलझा रहता है, तब तक उसे मुक्ति नहीं मिलती। असली समाधान यही है कि उसे अपनी मूल, अव्यक्त प्रकृति को फिर से जानना और पहचानना होगा, जिससे यह सारा भ्रम समाप्त हो जाए।

और वेदान्त का समर्पण यही कहता है— “हे प्रभो! अपने अगले युग-नाटक में भी मुझ पर कृपा करके और श्रेष्ठ भूमिका निभाने का अवसर प्रदान करना।”